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Akash VERMA
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Portfolio Sample translations submitted: 1
English to Hindi: Sample of my translation work
General field: Art/Literary
Detailed field: Art, Arts & Crafts, Painting
Source text - English
http://www.gutenberg.org/files/44881/44881-h/44881-h.htm#INTRODUCTION
Translation - Hindi
जुर्म की जो फसाना जो आगे के पन्नो का इबारत बनाती है, अफसोस! करीब करीब पूरी सच हैं, जो भी गिने चुने फ़ंतासिया डाली गई है, केवल घटनाओं को जोड़ने के लिए की गई है, और अमीर अली के रोमांच को दिलचस्प बनाते के लिए है जितना उनके भयानक पेशे के फितरत की वजह से मै कर सकूँगा।
1832 में इस इन्सान से मैं मुखातिब हुआ। वह उन मुखबिरों में से एक था, जिन्हें सौगोर से निजाम के प्रदेशों में भेजा गया था, और जिनके भ्रामक खुलासे से देश में एक उत्साह पैदा हुआ, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। उसके हर एक बयान को सुनते हुए जो डर और सिहरन मुझे हुई,वह मैं आप लोगों तक शायद ही पहुँचा पाऊँ और मैं बस इतना ही जोड़ना चाहूंगा ; जिसके एक- एक ब्यौरे को उसके साथी मुखबिरों ने भी दोहराया है और जैसा सरकारी दस्तावेजों में भी दर्ज है; कि उसका सीधा हाथ सात सौ उनिस हत्यायों में है। उसने मुझसे एक बार कहा था, “अरे साहब! १२ साल अगर जेल में नहीं रहना पड़ता तो मैं हजार भी पूरे कर ही लेता। भारत के लोग कैसे ठगी का चलन इतना फैला होने के बाद भी, इससे अनजान और अछूते रहे ,जिसके माहिर हमेशा से बिल्कुल इनके साथ- साथ उठते बैठते रहे, ज्यादातर ब्रिटिश पाठकों के लिए, जो पूरब के समाज के बनावट से अनजान है, के लिए एक आश्चर्य ही होगा। वर्तमान सीमाओं में मेरा आपको यह समझा पाना मुश्किल है पर यह इतना जरूरी है कि मैं इसे छोड़ नहीं पाऊँगा। भारत जैसा एक बड़ा भूभाग; जो शुरुआती दौर से ही बहुत सारे राजाओं और सरदारों; जिसमें से हर किसी के पास अपने इलाके में बिना जवाबदेही वाली असीमित शक्तियों वाली पर निष्क्रिय और प्रभावहीन सरकार होती, और जिनकी अपने सभी पड़ोसियों से ईर्ष्या या लड़ाई होती, ऐसे राजाओं के अधिकार वाले छोटे-छोटे राज रजवाड़ों में बंटा रहा हैं – ये आसानी से समझा जा सकता है कि किस तरह मुसाफिरों को मुख्य सड़कों पर भी किसी तरह की कोई सुरक्षा मिल पाने की उम्मीद नहीं थी। उनकी सुरक्षा के लिए न ही कभी कोई साझी सुरक्षा बनी और न ही कोई सरकार या पुलिस व्यवस्था चाहे एक राज्य में कितनी भी प्रभावी होती सभी राज्य में सफल हो सकती थी। जब आप इस बात पर भी ध्यान दे कि भारत में कभी कोई सार्वजनिक यातायात का साधन नहीं रहा (क्योंकि सड़कों की कमी और लोगों की आदत व्यवहार हमेशा इसमें रुकावट रहे।), तो यात्राएं कितनी भी लम्बी क्यों न हो हमेशा पैदल या घोड़ों पर ही होती; साथ ही अलग-अलग अनजाने दल भी साथ और सुरक्षा के लिए साथ हो जाते। यहां तक की ज्यादातर बड़ी सड़कें भी (कंपनी सरकार द्वारा फौजी जरूरतों के लिए बनाई सड़कों को छोड़कर) , लोगों के बार-बार चलने से बन गयी पगडंडियाँ ही थी; जो जंगलों ,पहाड़ों और बंजर से होती हुई जाती; जहाँ थोड़े बहुत गांव और थोड़ी सी ही आबादी होती। दो गाँवों के बीच , मीलों तक कोई आबादी न होती। ये सब परिस्थितियां किसी भी तरह के चोर उच्चको को मुसाफिरों को शिकार बनाने का आसान मौके देती। सभी तरह के लुटेरे , अलग- अलग तरीकों से लूट मचाते रहे। कोई हथियारों से सीधे और हिंसक तरीके से तो कोई चोरी चुपके और छुप- छुप कर। इन सब में बाद के सालो में ठग गिनती में सबसे ज्यादा, सबसे संगठित और अपने घिनौने काम को सबसे अधिक छुपकर करने में सफल और इस कारण सबसे खतरनाक और नुकसान करने वाले गिरोह साबित हुए।
मुसाफिरों का राह में पड़ने वाले शहरों से, दिन के राशन के अलावा कोई संवाद शायद ही होता। वह अगर कभी शहरों के अंदर चले भी जाते तो शहर के बाहर ही तंबू लगा लेते या पेड़ो के नीचे ही लेट जाते ।इस लिये किसी व्यक्ति के एक शहर से दूसरे शहर जाने की जानकारी पा पाना लगभग असम्भव ही था। जातियों, कबीलों और कारोबार में लोगों का बटा होना ठगो के लिए भेस बदल लेना आसान बना देता; बट्टा बचाने के एक बड़ी राशि का देश के एक कोने से दूसरे कोने तक सोने चाँदी का लेनदेन होना तो एक जगजाहिर बात है, जेवर और कीमती पत्थर भी दूर दराज के हिस्सों में भेजे जाते जिन्हें ले जाने वाले जानबूझकर मतलबी सा रूप लेते और सभी लोगों को अपने रास्ते के जरूरत के लिए रुपये रखने ही होते। अपने साथ रखे सामानों की जानकारी रास्ते में पड़ने वाले स्थानीय राजाओं के जाँच अधिकारियों से छुपा पाना या उनके मातहतों के द्वारा वह जानकारी लूटेरो और ठगों तक पहुँच जाने से रोक पाना भी लगभग असम्भव ही था।
हाल की खोजबीन में यह भी साबित हुआ कि भारत के लगभग हर हिस्से में, बहुत सारे खानदानी जमींदार और गाँवों के मुखिया ठगों के साथ पीढ़ियों से जुड़े हुए रहे है और उनके घिनौने कामों को छुपाकर बेधड़क बच जाने में मदद कर और खतरे के समय में आश्रय देकर उनके लिए खूनखराबा करना आसान बना देते और इसके बदले में उनकी आमदनी का एक हिस्सा लेते या उनके घरों से लगान वसूली करते जिसे ठग खुशी–खुशी देते। लगभग हर गांव से (और शहरों में उससे भी ज्यादा तादाद में) साधुओं,फकीरो और दूसरे याचकों ने खुद को जोड़ा हुआ था। इनके घर और झोंपड़े,जो शहर की दीवारों के बाहर होता और अकसर बाग़ बगीचों से लगा होता, जब फ़क़ीर अपने आध्यात्मिक लिबास में पानी और छाँव की मामूली सी दिखती पेशकश देकर मुसाफिरों को ललचाता; ठगों को छुपने और इकट्ठे हो जाने का मौका मिल जाता। जो जगह मैंने गिनाई हैं और सैकड़ों और मामूली से दिखने वाले; पर बहुत नजदीकी तरीके से लोगों की आदतों से जुड़े हुए और उनसे पैदा हुए है; ठगी को पूरे देश में फ़ैलने और प्रचलित करने की वजह बने है।
ठगी का मूल स्रोत पूरी तरह से कहानियों और गुमनामी में खो चुका है। कर्नल स्लीमैन के अनुमान के अनुसार, इनका संबंध मुस्लिम बंजारों से है जो मुगलों और टार्टर्स (मंगोल तुर्क) लोगों के हमलों के कई समय बाद भी देश को लुटते रहे। हिंदूओं के अनुसार इसकी दिव्य उत्पत्ति उनकी देवी भवानी से हुई और यह तथ्य कि हिन्दू और मुसलमान,दोनों ही धर्म के ठग उनकी शक्ति में विश्वास करते है और दोनों ही हिन्दू तरीके से उनकी पूजा पाठ करते है, भी पूरी तरह से यह साबित करते है कि ठगी की उत्पत्ति हिंदुओ में ही हुआ। हलांकि एक लंबे समय से जारी होने के बाद भी भारत के इतिहास के किसी भी हिस्से में इसके ढूंढ लिए जाने का ,अकबर के राज तक, कोई ब्यौरा नहीं है ; जब इसके बहुत सारे अनुयायियों को पकड़ा गया और फांसी दी गई। तब से लेकर 1810 तक मेरे हिसाब से यह ब्रिटिश सरकार और प्रशासन से छुपा ही रहा, हालाँकि स्थानीय राजाओं और जमींदारों ने बीच-बीच में कुछ ठगों को पकड़ा और सजा दी। इसी साल जब बहुत से सैनिक घरों को जाते और वापस आते में गायब होने लगे तो कमांडर इन चीफ ठगों के खिलाफ चेतावनी का आदेश दिया। 1812 में ठगों के हाथों लेफ्टिनेंट मोनसेल के हत्या के बाद मिस्टर मालहेड,एक ताकतवर टुकड़ी के साथ,उन गांवों में गये जहां हत्यारों के रहने की सूचना थी और उनका विरोध हुआ। सिंधौसी* के कई परगनों में ठगों का अनेक गाँवों में रहना और पीढ़ियों से उनका सिंधिया राज्य को सुरक्षा के लिए लगान देना पाया गया। उस समय यह हिसाब के अनुसार अकेले इन गांवों में ही नौ सौ से अधिक ठग रह रहे थे। मिस्टर मालहेड का विरोध करते हुए अंत में ये ठग बिखेर दिये गए और इस बात में कोई शंका नहीं है कि उन लोगों ने ठगी का अपना धंधा देश के उन हिस्सों में भी चालू कर दिए जो पहले इससे अछूते थे।
आश्चर्य की बात यह हैं कि 1816 तक ठगी को खत्म करने के लिए कोई पहल नहीं हुई जबकि हमें इसकी काफी जानकारी हो चुकी थी जिसके बहुत मजबूत सबूत हमें डॉक्टर शेरवुड के लेख में मिलते है जो मद्रास साहित्यिक पत्रिका में छपी थी और जिसने दक्षिण भारत के ठगों के आदतों और अनुष्ठानों का लाजवाब ढंग से सही रूपन किया था। यह माना जा सकता है कि उनकी कहानी भरोसे के लिए कुछ ज्यादा ही राक्षसी थी और इसलिए या तो हवा में उड़ा दी गयी या ध्यान में नही ली गयी परन्तु यह निश्चित ही सच्ची बात है कि उस समय से 1830 तक,भारत के लगभग हर हिस्से में पर खासकर बुंदेलखंड और पूर्वी मालवा,ठगों के बड़े गिरोह,मेजर ब्रोथ्वीक और कैप्टन वार्डलौ और हेनले ने गिरफ्तार किए । बहुत पर मुसाफिरों के कत्लों के मुकदमे और फांसी भी हुई पर इसपर एक गुजरती सी दिलचस्पी के अलावा लोगों का कुछ ज्यादा ध्यान नहीं गया। इस दौरान अगर कभी इसके पूरे और फैले हुए संगठन पर यदि शक भी किया गया और शक होने पर भरोसा भी किया गया तो भी कभी भी इसके “व्यवस्था” पर निशाना नहीं साधा गया।
पर इस साल और इसके पहले के कुछ सालों में ठगी अपने उत्पात के डरावने चरम पहुँचती हुई लग रही थी और अंग्रेजी सरकार इतने विशाल और बढ़ते हुए आतंक से खुद को अलग नहीं रख सकती थी। बहुत सारे प्रतिष्ठित सिविल अफसरों- जैसे मेसर्स,स्टॉकवेल, स्मिथ ,विकिन्सन,ब्रोथ्वीक आदि की नजर इस पर पड़ चुकी थी और वे इसमें गहरी दिलचस्पी लेने लगे। पकड़े गए ठगों में से कुछ को ,जिसमें फ़िरंगी नाम का मुखिया सबसे कुख्यात था,इस शर्त पर जीवन दान दिया गया कि वह अपने दूसरे साथियों का पर्दाफाश करें।
इस व्यक्ति के घिनौने कबूलनामे, नर्मदा नदी किनारे वाले सूबे के राजनीतिक एजेंट ,कैप्टन (अब कर्नल) स्लीमैन के लिए भी इतने अनपेक्षित थे कि इन काबिल अफसर ने भी पहली बार में इसे मानने से मना कर दिया था,परन्तु उस कब्र की खुदाई ; जिसमें काम ज्यादा सड़ चुके कम से कम तीस लाशें थी और उसी जगह में और आसपास ऐसे और कब्र खुलवाने की उसकी पेशकश ने उस सरकारी गवाह के इकरार को बेहद पक्का कर दिया। उसकी सूचनाओं पर कार्यवाही हुई और ठगों का एक बड़ा जमावड़ा जो राजपूताना में ठगी पर निकलने के लिए एकजुट हुआ था ,पकड़ा गया और उनपर मुकदमे चले।
इस तरीके से ठगी का प्रचलन सक्रिय रूप से सारे देश में होना पाया गया। इसके होने की पहली पुष्टि हलांकि मध्य भारत के इलाकों में ही हुई पर जैसे -जैसे दूर दराज से लोग पकड़े जाने लगे वह अपने पर उन लोगों की खबर देते चले गए जो करीब- करीब हर दिन के हिसाब से खून बहाते चले जा रहे थे। दायरा धीरे-धीरे बढ़ता चला गया जब तक इसने पूरे देश को अपने दायरे में नहीं ले लिया, हिमालय की तराई से लेकर कैप कोमोरिन तक,कच्छ से आसाम तक,शायद ही ऐसा कोई राज्य था जहाँ ठगी जारी नहीं थी,जहाँ मुखबिरों के इकरारनामे मुर्दों की खुदाई से साबित न हो रहे थे।
जो लोग उस समय यानी की 1831-32 में भारत में थे उनमें से कुछ ही शायद उस रोमांच को जिंदगी भर में भुला पाएंगे जो इन खोजो से देश भर के अलग- अलग हिस्सों से में हो गयी थी ,बहुत सारे मजिस्ट्रेट; जिन्हें यह भरोसा ही नहीं हो रहा था कि इतने खामोशी से इतना विनाश करने वाली ऐसी व्यवस्था उनके जानकारी के बिना उनके इलाके में काम कर रही थी; इसे बिल्कुल भी मानने के लिए तैयार नहीं हुए । मैं नीचे एक पैराग्राफ कर्नल स्लीमैन के उनके बहुत जिज्ञासा भरे और काबिल रचना के प्रस्तावना से उद्धत कर रहा हूँ।
“जब मेरे पास,नर्मदा घाटी में,सन 1822,1823 और 1824 में, नरसिंहपुर जिले का सिविल चार्ज था कोई मामूली चोरी या डकैती भी मेरे नज़र से नहीं बचती थी और न ही सामान्य रूप से कोई चोर या डकैत ऐसा था जिसके किरदार से अपने मजिस्ट्रेट की जिम्मेदारी निभाते हुए मैं वाकिफ नहीं हो गया था; और अगर किसी आदमी ने मुझसे उस समय कहा होता कि पेशेवर हत्यारों का एक गिरोह कुंडीली गांव में,जो मेरे अदालत से बमुश्किल चार सौ यार्ड्स की दूरी पर है, रहता है और मुंदेसर गांव के घने बगीचों में, जो संगनोर और भोपाल के रास्ते की ओर मेरी अदालत से सिर्फ एक स्टेज (एक पुरानी ग्रीक इकाई, लगभग 30 किलोमीटर) की दूरी पर था,पूरे भारत में सबसे बड़ा भील, यानी ठगो का हत्यास्थल हैं; और इन बगीचों में डेक्कन और हिन्दुस्तान के ठगों के बड़े -बड़े गिरोह हर साल इकट्ठे होते हैं ; कई-कई दिनों तक यहाँ इकट्ठे रहते हैं और यहां से निकलने वाले और गुजरने वाले हर सड़क पर अपना डरावना कारोबार करते है और इसकी जानकारी इन बगीचों के उन दो जमींदार मालिकों को भी है जिनके पुरखों ने उन बगीचों को लगवाया था; तो मैं ऐसा कहने वाले आदमी को बेवकूफ या पागल समझता । लेकिन सच्चाई इससे थोड़ी भी अलग नही थी ;मेरे जिला मजिस्ट्रेट रहते हुए,मुंदेसर के इन बगीचों में और उनके आसपास एक सौ यात्रियों की लाशें दफन थी और हत्यारों का एक गिरोह कुंडीली गाँव में और आसपास रहता था जिसने अपने अपराध यहाँ से पूना और हैदराबाद शहर तक फैला रखे थे।
इसी तरह से, ठगों की हिम्मत दिखाता हुआ एक तथ्य यह भी था कि हिंगोली कैंटोनमेंट में,उस जिले के ठगों का नेता,हुर्रे सिंह,उस जगह का एक सम्मानित व्यापारी था,जिससे मैंने भी कई और लोगों की तरह लेनदेन किया था। एक मौके पर उसने जिले के सिविल इंचार्ज ,मिस्टर रेनॉल्ड्स से,बॉम्बे से कुछ कपड़े ,जिनके बारे में उसे पता था कि वे उनके मालिक,पास के ही कस्बे के एक व्यापारी,के साथ आ रहे ; लाने के लिए पास की मांग की। फिर उसने इस व्यापारी, इसके सहायकों और गाड़ीवानों को मार डाला। अपने पास का इस्तेमाल करते हुए सारा सामान हिंगोली तक ले आया और कैंटोलमेन्ट में इन्हें खुले आम बेचने लगा और इसका हमें कभी पता भी नहीं लग पाता अगर बाद में पकड़े जाने पर पूछताछ में वह मुंह न खोलता और इस घटना को दिल्लगी में शान से न सुनाता। इस आदमी और उसके लोगों के हाथों इसी कैंटोनमेंट के बाजार में , मुख्य सुरक्षा से 100 यार्ड्स की दूरी पर कई लोग मारे गए और सिपाहियों की तैनाती से बमुश्किल 500 यार्ड्स की दूरी पर दफना दिए गए। मैं खुद इनमें से कई अभागी कब्रों को (जिसमें से हर एक में कई लाशें दफन थी) खोदे जाने के समय उपस्थित था जिन्हें इकबालिये एक के बाद एक वहाँ हाज़िर लोगों को तसल्ली से तब तक दिखाते रहे; जब तक हम घृणा से भर कर आगे की खोज बन्द न कर दी। यह जगह एक सुख चुके पानी के झरने का किनारा था जो आगे जाकर नदी से जुड़ रहा था; इसकी चौड़ाई एक गड्ढे से ज्यादा नहीं थी; और यह पास के गांव को जोड़ती सड़क के पास ही था, जो कैंटोनमेंट को आसपास के देहात से जोड़ने वाला मुख्य निकास था।
एक बार जब इस घटिया रीति; जिसका खुलासा सिर्फ इसके कार्यकलापों में ही हुआ था ;को सबसे कठोर ढंग से खत्म करने की आवश्यकता महसूस हुई ,तमाम अफसर, जिन्हें पहले इकबालिये गवाहों के बयान और आरोपों की जाँच करने के लिये नियुक्त किया गया था, अपना पूरा प्रयास उसी तरह की जरूरत बड़ी सरकार में भी जगाने का करने लगे और सफल हुए। गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिंक और सुप्रीम काउन्सिल ने इस मामले को बड़ी गंभीरता से लिया और गुप्तचर सेवा के उच्च अफसरों को ठगी निर्मूलन के प्रयासों के प्रबंधन के लिए उन जिलो में नियुक्त किया जिनमें ठगी का प्रचलन पाया गया था। स्थानीय राजाओं ने भी अपने उन नागरिकों को छोड़ दिया जिनकी ठगी के इल्जाम में गिरफ्तारी हुई या जिनकी शिनाख्त मुखबिरों ने की। हलांकि कुछ जगहों में जमींदारों और पटेलों ने कुछ ठगों को बचाने की कोशिश की, अधिकतर जगहों ठगी निर्मूलन की कोशिशें सफल रही। जैसे ही संदेह बढ़ने लगा, कोई भी व्यक्ति देश में किसी भी दिशा में बिना पुलिस और मुखबिरों के जाँच से गुजरे कही जा सकता था जिन्हें उनके साथ सभी बड़े पड़ावों और मुख्य शहरों में लगाया गया था।
इन मुहिम की सफलता नीचे दिए गए आंकड़ों से और साफ हो जाती है जो लेखक को विभाग के जनरल सुपरिटेंडेंट , कैप्टन रेनॉल्ड्स द्वारा दी गयी हैं।

1831 से 1837 के बीच, दोनों साल मिलाकर।

पेनांग आदि भेजे गए 1059
फाँसी दी गई 412
सश्रम आजीवन कारावास 87
सुरक्षा के लिए कारावास 21
अलग अलग समय के कारावास 69
मुकदमे के बाद रिहाई 11
जेल में मौत 36
1727
सरकारी गवाह बनाये गए 483
जुर्म साबित पर सजा नही 120
जेल में विचाराधीन 936
3266
इसके अलावा, कैप्टन रेनॉल्ड्स के अनुसार यह लिखे जाने के समय देश के अलग- अलग हिस्सों में 1800 से अधिक ठग फ़रार थे जिनके नाम मौजूद थे,इनके अलावा कितने और थे उसका अनुमान लगाना मुश्किल ही हैं।

इसलिए ठगी के खुलासे या आंशिक नियंत्रण से पहले कितने लोगों की जिंदगी और कितनी संपत्ति का नुकसान हुआ होगा! इन बेरहम हत्यारों के हाथों हर साल हजारों लोगों को अपने जान से हाथ धोना पड़ता रहा होगा! सचमुच ही यह भयावह स्थिति थी क्योंकि पिण्डारी और मराठा युद्धों के मुश्किल काल में इनका कारोबार खूब बड़ा होगा ,न ही 1831 के पहले तक खून ख़राबे की इस पूरी व्यवस्था पर किसी तरह की कोई रोकटोक डाली जा सकी थी और इसके आम खुलासे के बाद उन जगहों की जानकारी के लिए, जहाँ उनके लापता रिश्तेदारों को दफना दिया गया था, अनगिनत परिवारों से भावुक कर देने वाले आवेदन विभाग के अफसरों को मिलना; ताकि कम से कम उन्हें मरे लोगों के अंतिम संस्कार का दुखद संतोष मिल सके ;साबित करता है की इस शैतानियत ने समाज को कितनी बुरी तरह परेशान किया हुआ था।
न सिर्फ ठगी आगे के पन्नों में बताए गए तरीके से,बल्कि कई अलग तरह – तरह से भी ठगी का होना पाया गया और खासकर गंगा में इसका विस्तार था जहां नावों में रहने वाले ठग उन यात्रियों को मार डालते जिन्हें वह अपने साथ नदी के ऊपर या नीचे के सफर के लिए तैयार कर लेते लेकिन सबसे छटे पापी तो वे थे जो मां बाप को उनके बच्चों के लिए मार डालते ताकि उन्हें घर के काम करने वाले गुलामों या नाचने वालियों के पास वेश्यावृत्ति के लिए बेच सके। पूरे भारत भर में, रजवाड़ों के अधिकार वाले क्षेत्रों को मिला कुल जमा 18 ही अधिकारी ठगी निर्मूलन के लिए सुपरिटेंडेंट और एजेंट के रूप में नियुक्त थे और अधिकतर के पास इस जिम्मेदारी , जो अपने आप में इतनी भारी थी, के साथ दूसरे दीवानी और राजनीतिक जिम्मेदारियां भी थी। किसी भी नक्शे को देखकर ही, एक ही बार में समझा जा सकता था कि हर व्यक्ति की निगरानी में कितना बड़े इलाके या राज्य आते है (मैंने अपने पास मौजूद एक लिस्ट से दो नाम सहसा चुने हैं, पहला,बैंगलोर से बंगाल इन्फैंट्री के कप्तान एल्वाल,जिनके पास पूरा मैसूर राज्य और पूरा दक्षिण प्रायदीप,था और कैप्टन मैक्लम जो सारा निजाम शाही देखते थे)।इस खतरनाक व्यवस्था को ख़त्म करने के लिये जिस तरह की एकाग्रता और देखरेख अनिवार्य है(क्योंकि इसमें कोई शक नहीं कि जहां भी एक भी ठग अनदेखा रह गया तो उसे अपने साथ मिलने के लिए भारत में कही भी बहुतायत में लोग मिल जाएंगे), क्या वे उसे अपने इलाके के हर हिस्से तक फैला पाने में समर्थ है, यह भारत सरकार को बेहतर पता होना चाहिए। यही आशा है कि जरूरत होने पर आर्थिक कारणों से और अधिकारियों की नियुक्तियों पर रोक न लगे।
मैंने जो इकरारनामे रिकार्ड किए उन्हें यहां किसी की अपराध या डरावनी कहानियों में घृणित रुचि पूरी करने के लिए नही छापा जा रहा है बल्कि ऐसा ठगी की प्रथा को , मेरे पूरी क्षमता के साथ, उजागर करने और इंग्लैंड की जनता को इसके बारे में और जागरूक करने के लिए है हालाँकि कैप्टन स्लीमैन के बेशकीमती और रोचक कार्य पर एडिनबर्ग रिव्यु में छपे एक आर्टिकल ने जरूर कुछ उत्सुकता जगाई है।
पर मैं उम्मीद करता हूँ कि सिर्फ ठगों के रीति रिवाजों और अंधविश्वासों के वर्णन के बजाय इस वर्तमान कार्य का प्रारूप इसे ज्यादा आकर्षक और रोचक बनाएगा; और जहाँ तक स्थानीय लोगों के आदत व्यवहार के चित्रण और जगहों और दृश्यों के वर्णन का खरा उतरने की बात है मैं सिर्फ अपने भारत में बिताए 15 वर्षों के अनुभव और इसके वासियों के साथ मेरे गहरे संबंधों के बारे में बात करना चाहूँगा।
इस रचना से ठगी उन्मूलन के बारे में जन जागृति लाने में किसी भी तरह का सहयोग होता है और इसके असर से प्रभावशाली व्यक्तियों में से कोई इस मानवता के कार्य के लिए अपने प्रभाव का उपयोग करने की ठान ले तो मेरा लगाया गया समय व्यर्थ नहीं होगा।
एक ठग का कबूलनामा। अनुवाद।1873 एडिशन का प्रस्तावना
“कंफेशन ऑफ आ ठग” के पहले एडिशन के प्रकाशन के 34 सालो बाद मुझे इसके नए एडिशन को लोगों के सामने पेश करने के लिए बुलाया गया है और यह करते हुए मैं इस बात का आभार करता हूँ कि इस कार्य की अभी भी इतनी मांग हैं।
बहुत कम लेखक अपनी लेखनीय जीवन की पहली रचना को मुझसे ज्यादा गर्व और संतुष्टि के साथ इतने समय तक देख सकते हैं ।1837 में बरार में इल्लिचपूर में अपने रेजिमेंट की सेवा करते समय ---- मलेरिया के बार बार चढ़ते उतरते बुखार से थका और परेशान ---- एक आराम कुर्सी में पड़े हुए ,क्योंकि मैं ज्यादा देर बैठ पाने में समर्थ नही था, एक बोर्ड अपनी गोद पर रखकर अपने आप को खुश करने के लिए मैंने ये कबूलनामे लिखे, उस समय इनके छपने के बारे में बस जरा सा सोचा और थोड़ी सी ही आशा की थी। मुझे सेहत में सुधार करने के लिए इंग्लैंड वापस भेज गया और 1839 में पहला एडिशन आया जो मिस्टर रिचर्ड बेंटले द्वारा प्रकाशित किया गया। विषय नया ,अजीब और रोचक था और एक बार में ही लोगों के दिलो में जगह बनती चली गई। “पांडुरंग हरि” के अलावा भारतीय लोगों की आदतों ,रीति रिवाजों और सोच का इस तरह का नाटकीय रूपांतरण करने का प्रयास पहले नही किया गया था; और शायद ठग के इकरारनामे, जो अपने में ही भयानक थे, से ज्यादा इस कारण से इस कार्य को पसंद किया गया जो बिल्कुल सपने जैसा था। पुराने एडिशन पूरी तरह से प्रिंट से बाहर हो चुके है और इस तरह से गायब हो चुके है कि वर्तमान एडिशन के पुनर्प्रकाशन के लिए भी एक कॉपी खरीद पाना नामुमकिन हो गया और मुझे इसके लिए ,मेरे पास मौजूद इकलौती कॉपी देनी पड़ी।
जब मैंने इकरारनामे लिखे तब मैं नया-नया ही ठगी के सुनवाई के लिए केसों की तैयारी में सहयोग करने ; आरोपों की जाँच, और ठगों के हाथों हुए सैकड़ों हत्यायों के बारे में बयान और इकरारनामे इकट्ठा करने और साथ ही डेक्कन में गिरोहों और उनके सहयोगियों को पकड़वाने के तरीकों का निर्देश देने के लिए नियुक्त हुआ था और मेरा दिमाग मेरे विशाल लेखों से भरे हुए थे। स्वर्गीय जनरल सर डब्ल्यू स्लीमैन की देखरेख में ठगी निर्मूलन के लिये बना विशेष विभाग भरपूर तरीके से काम कर रहा था और हज़ारों में ठग को ढूंढा, पकड़ा और न्याय किया जा रहा था। ये कार्यवाही , ब्रिटिश भारत,और साथ ही साथ स्थानीय रजवाड़ों यानी भारत के हर हिस्से में फैली हुई थी और जिस ऊर्जा और अचूक निश्चितता के साथ यह कार्यवाहियाँ हो रही थी ।कुछ थोड़े ही सालो में कुछ फरार ठगों को छोड़ कोई भी ठग नही बचा; और यह अपराध,इस तरह के गिरोहों और इनके शक्तिशाली मुखियों के लिए पहले की तरह कर पाना लगभग असंभव हो गया था, जिन्होंने इसके पहले सदियों तक भारत के हर राज्य के हर सड़क पर डरावने ढंग से सफलता और जीत हासिल की थी जिसके बराबरी अपराध के इतिहास में और कोई नही कर सकता।
जब ठगी के खिलाफ कार्यवाहियाँ केवल उन सरगना और साथियों को पकड़ने ,जो गिरफ्तारी से बचने भेस बदलकर छुपे हुए थे, तक सिमट गया तब ठगी पुलिस और विभाग की सेवा डकैती निर्मूलन के लिए उपयोग होने लगी जो ठगी की ही तरह एक आम और क्रूरता एवं बरबादी करने में उसी की तरह का अपराध हैं;जो कभी- कभी खानदानी रूप से,सारे भारत में, अभी भी किया जाता हैं पर जिसके लक्षण ज्यादा बिखरे हुए हैं और ठगी की तरह इसे जड़ से नही उखाड़ा जा सका है पर इसके लगातार असर को व्यवहारिक रूप में जांचा और रोका जा चुका है। हालाँकि ठगी के मामले में ,जिस तरह यह फैला हुआ था, सफलता सौ फीसदी पूरी रही है । कई सालों से कोई भी गिरोह सड़कों पर नही निकला है। और जैसा कर्नल चार्ल्स हर्वे जो डिपार्टमेंट के वर्तमान मुखिया है ने 1869 की अपनी रिपोर्ट, जिसकी नवीनतम प्रति पा पाने में मैं सफल हुआ, लिखा हैं----
“ हालांकि शहरी ठगों के एक गिरोह और उनके गतिविधियों का इंदौर में मिलना माना गया है पर मेरे हिसाब से यह उतना महत्व का नही हैं कि जिससे इस बात से, जो मैंने दूसरों से भी कही है, से भरोसा उठ जाए कि फाँसीगर ठगी का पुराना अपराध व्यवहारिक रूप से खत्म हो गया है।“ ऐसे बेहतरीन नतीजे ब्रिटिश शासन की अथक ऊर्जा और उसके द्वारा दिलाये गए लोगों के कारण ही हो पाए है,स्थानीय राज्य कुछ अपवादों के अलावा ज्यादातर उदासीन रहे और अकसर उन कार्यवाहियों पर रोक लगाते रहे जिससे शायद जल्दी सफलता मिल सकती थी।
मुसाफिरों को जहरीले या नशीले सामान खिलाकर जहरखुरानी करना एक और अपराध है जिसे अब ठगी के श्रेणी में रखा जाता हैं! यह तुलनात्मक रूप से सीमित और पंजाब के मुजबी सिक्खों के अलावा खानदानी बढ़ने वाली नही है और फाँसीगरी की एकाध छिटपुट घटना अभी भी होती है पर इसमें संगठित अपराध के कोई लक्षण नही है और जितना विस्तृत और साक्ष्य आधारित कर्नल हर्वे और अन्य अधिकारियों की रिपोर्ट है उससे यह साबित होता है कि कर्नल हर्वे की राय जो मैंने ऊपर उद्धृत की है वह गहरे ज्ञान और अनुभव पर आधारित है।और जब हम धैर्य के साथ लगे मेहनत, क्षमता और लोगों के ज्ञान और भारत के अपराधियों के प्रकार का, जो आश्चर्यजनक रूप से अनेकानेक है, का सिर्फ जरा सा अनुमान लगा सकते है; जो कर्नल हर्वे और उनके साथ इस नेक काम में जुड़े लोगों के काम को और भी अधिक अलग बनाता हैं। मुझे इस बात का भरोसा है कि उन्हें उनके देश के लोगों और भारत के लोगों की भी सहानुभूति मिल रही है।
और ऐसे में जब, ठगी की अजीब व्यवस्था का होना, आज भी लोगों में दिलचस्पी जगा रहा है, मैं पाठकों को आदर के साथ “इकरारनामे” सौंपना चाहता हूँ जो इसके सबसे सशक्त पैरवी के दिनों की कहानी, बिना किसी लाग लपेट के या इसके दुष्टता में कुछ काटे बिना कह रहा हूँ क्योंकि मैंने सचमुच ही इसे कहे जाते खुद सुना है।

मीडोज टेलर ,सी.एस.आई.
ओल्ड कोर्ट,हैरोल्ड कोर्ट
अप्रैल 1873

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May 8, 2020



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